कल एक क्रन्तिकारी मार्क्सवादी मित्र से बातचीत हो रही थी। सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकों पर ताजा फैसले के बारे में। पहले तो उन्होंने फैसले का स्वागत किया लेकिन जब मैंने मार्क्सवाद के समलैंगिकता पर स्टैंड पर प्रश्न उठाये तो वह नाराज़ हो गए।
समलैंगिक लोगों के अधिकारों का विरोध जब बाबा रामदेव, बुखारी और विहिप जैसे संगठन करतें हैं। तो यह समझा जा सकता है। लेकिन जिस तरह से मार्क्सवादी मित्र अपने स्टैंड को बदलने में आनाकानी करते हैं वह निराशाजनक है। यह सही है कि मार्क्स और एंगेल्स ने अपने पत्र व्यव्हार में समलैंगिको के लिए गाली गलौज की भाषा इस्तेमाल की है। एंगेल्स ने अपने प्रसिद्द ग्रन्थ 'परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति' में समलैंगिकता को 'अप्राकृतिक' 'विकृति' और 'नैतिक पतन' की संज्ञा दी थी। मार्क्स के अनुसार समलैंगिकता पूंजीवादी समाज की एक नैतिक विकृति है। इसके बाद सोवियत संघ और चीन की समाजवादी सरकारों ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाले कानून बनाये। मक्सिम गोर्की ने 1934 में अपने लेख प्रोलितेरियन ह्यूमनिज्म में कहा -- 'विश्व से समलैंगिकों को ख़त्म कर दो फासीवाद अपने आप ही गायब हो जाएगा'
यह सब होते हुए भी यदि मार्क्सवादी अब भी समलैंगिकता का विरोध करते हैं। और समलैंगिकों को अपराधी मानकर उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों के दमन को जायज़ ठहराते हों। तो उनको जडसूत्रावादी के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है। क्या इसी का नाम मार्क्सवाद है। क्या ऐसे ही साम्यवाद के लिए जनता को संघर्ष करना है जिसमें समलैंगिकों को जीने का अधिकार भी न हो।
दिल्ली उच्च न्यायालय के ताज़ा फैसले के बाद अब तक किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी या संगठन चाहे वह उदारवादी हो या क्रान्तिकारी ने अब तक कोई स्टैंड नहीं लिया है। इस समय चुप्पी का मतलब फैसले का विरोध करना है।
निश्चित रूप से हम मार्क्सवादियों को अपनी गलती सुधारनी होगी। अतीत के लिए अपनी आत्मालोचना करनी होगी। और मार्क्स से लेकर गोर्की तक के बयानों को ग़लत कहना होगा।
प्रसंगवश पेश है निपुण गोयल की एक कविता
There will be a day,
I can tell the world
I’m gay
When hatred and disgust
Shall not bar my way
To come out of the closet-
So stifling this day.
When “normal” men realize
I’m no less normal;
When archaic laws
Don’t deem my love criminal;
When I walk hand in hand
And proudly I can stand
With my beloved beside me
And the light of freedom around me.
There will be a day
When I can tell the world
I’m gay…
aapka blog ki duniya me svagat h
ReplyDeletesamlaingikta ko lekar marxvadi stand par aapne jo sawal uthaye hai wo vicharottejak h...
agar aapko koi aapatti na ho to jarur bataye ki ap kis vishay me shodh chhatra h ??
word verification hata de to comment karne walo ko suvidha hogi
rangnath ji dhanyavaad,
ReplyDeleteword verification hata diya hai.
कई बेहतर प्रश्न उठा रखें हैं यहां आपने।
ReplyDeleteमार्क्स और एंगेल्स जब समलेंगिकता पर यह बात कहते हैं तो यह भी समझना चाहिए उसका आशय क्या है?
उनका आशय सिर्फ़ और सिर्फ़ वही रहा होगा जो उन्होंनें कहा है, यानि की वे उसी समलेंगिकता की बात कर रहे थे जो वाकई में एक विकृति है और पूंजीवादी समाज की सहज और अनैतिक उपज है।
गोर्की भी फ़ासीवादियों में सामान्य होती जा रही इसी विकृति के संदर्भ में ही उक्त कथन कह रहे होंगे, जहां तक समय को लगता है।
आज जिस व्यापक परिप्रेक्ष्य में समलेंगिक संबंधों पर बहस-मुहाबिसा चल रहा है जिन रूपों की स्वीकार्यता की मांग चल रही है जाहिर है इन्हें उन समलेंगिक विकृतियों के साथ गड्डमड्ड करना थोडा जल्दबाज़ी करना है।
समलेंगिकता के हर प्रकार पर अलग-अलग नज़रिए से देखना होगा।
आप यदि समय के ब्लॉग पर आएं और कल की ही इसी विषय पर लिखी पोस्ट पर अपनी राय दें तो अच्छा लगेगा।
बाकी आपने इस पर सही नज़रिया अपनाया है और कई मानसिकताओं की अच्छी ख़बर ली है।