अभी कबाड़खाना ब्लॉग पर समलैंगिकता को लेकर एक बहस चल रही है। मैंने भी वहां दो पोस्टों पर कुछ टिप्पणियाँ की है। मैं पोस्ट समेत यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
सबसे पहले राजेश जोशी जी का लेख --
मैं भी गे हुआ, तू भी गे हुआ।
आज से मैं गे हुआ. ये घोषणा दिल्ली हाईकोर्ट के क्रांतिकारी फ़ैसले के बाद की है. क्योंकि अगर तू गे है तो प्रोग्रेसिव है. अन्यथा नहीं. अगर तू गे है तो सैंसिटिव है. अन्यथा नहीं. अगर तू गे है तो तेरा जनतंत्र पर यक़ीन है, वगर्ना तू फ़ासीवादी है.
मै न इंसैंसिटिव हूँ. न मैं जनतंत्र पर शक करता हूँ और न ही मैं फ़ासीवादी हूँ. अब मेरे पास एक ही चारा बचा है कि मैं ख़ुद को गे डिक्लेअर कर दूँ. कैसा है? इसमें बुराई भी क्या है?
अब तू अगर गे है तो ऐश कर. अब तक लास एंजेलस या सिनसिनाट्टी में रहने वाला तेरा पार्टनर ही ऐश करता था. अब तू भी कर. दिल्ली और बंबई में रहकर भी ऐश कर. मैं अब कुछ ही दिन में दिल्ली और आसपास के गाँवो-क़स्बों में गे परेड का आयोजन करना चाहूँगा. मैं नहीं करूँगा तो कोई और करेगा. तू भी आएगा ना? ये अपनी नई लिबरेशन है आफ़्टर आल.
आख़िर तू ही सपने देखता था ना कि हिंदुस्तान एक दिन सुपर पावर होएगा? तूने ही तो कहा था कि यार सरकार का काम कोई ब्रेड बनाना या स्टील बनाना नहीं है. कितनी सुपर-डुपर बात थी. आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और यहाँ तक कि जापान को भी वेस्टर्न कंट्री मानते हैं कि नहीं. अगर इंडिया वेस्टर्न हो रहा है तो इतनी हायतौबा क्यों? अशोक राव कवि कितना इंक़लाबी था कि पिछली सदी में ही खुल्लेआम कहता था कि मुझे ट्रक़ ड्राइवर कित्ते पसांद हैं. (अरे वही अशोक राव कवि जिसने गाँधी को सनकी बनिया कहा था... हाहाहाहाहाह !!!)
दिल्ली से पुलिस हेडर्क्वार्टर्स के बाहर 1992 का वो प्रदर्शन याद है जिसमें सुंदर मुखड़ों वाली सुकन्याएँ घोषणा कर रही थीं कि उन्हें लड़कों से नफ़रत हैं और लड़कियों से प्यार? कित्ते डरा करते थे हम लोग यार.... डेमाक्रेसी में रहने के बावजूद तू अपने पार्टनर को चुम्मा नहीं दे सकता था. उसकी बाँह में बाँह डालकर घूम नहीं सकता था. साउण्ड्स लाइक सो, सो, लास्ट सेंचुरी.
नाउ तो इंडिया हैज़ चेन्ज़्ड ए लाट, यार !! तेरी बात भी सुनी जाएगी. दिल्ली हाईकोर्ट इज़ रियली, रियययली, रिययययली रिवाल्यूशनरी.
(उम्मीद है कि एक बहस छिड़ेगी. अगर नहीं छिड़ी तो भी क्या. भारत तो वर्ल्ड पावर बन ही रहा है.)
इस पर मेरी टिप्पणियां --
१ rajesh joshi ji,
aapki bat samajh nahin aai aisa lagta hai ki aap samlaingik logon par apni frustration nikal rahen hain. samlaingikon ne yah kabhi nahin kaha ki agar koi samlaingik nahin hai to vah janvaadi ya krantikari nahin hai. samlaingikon ki pida to bas itni hai ki unko bhi ek aam nagrik ki terah jeene ka hak hai.
aur jo sexual minority ke hakon ko recognize nahin karta vah janvaadi nahi hai। jaise koi yadi bharat mrn dharmik alpsankhyakon jaise muslimon ke nagrik adhikaron ko nahinmanta to vah janvadi nahin hai.samlaingikon ko aam logonki terah jeene ka hak hai yah manne ke liye samlaingik hona jaruri nahin hai. jaise dalit utpeedan ka virodh karne ke liye dalit hona jaruri nahin hai.
२ और दूसरी बात, आपने जो समलैंगिकों को एक खास राजनैतिक प्रवित्ति से जोड़ा है. आपका कहना चाहते हैं की समलैंगिक कारपोरेट भुमंदालिकरण और निजीकरण के समर्थक है या सुपरपावर बनने के पूंजीवादी प्रचार को ठीक मानते हैं. यह एकदम गलत है.यह सही है समलैंगिक अधिकारों के लिए आन्दोलन पहले पश्चिमी देशों में हुए और फिर भारत में आयें हैं. लेकिन ऐसा तो जनवादी लोकतंत्र के बारे में भी सच है. जनवाद के लिए संघर्ष भी पहले पश्चिम में ही हुए. जनवादी क्रांतिया पश्चिम में हुई. संसदीय लोकतंत्र और वयस्क मताधिकार की संकल्पना भी पहले पश्चिम में आई. साम्यवादी और सामाजवादी आन्दोलन भी पश्चिमसे शुरू हुए.आधुनिक नारीवादी आन्दोलन भी पश्चिम से शुरू हुए. यहाँ इतना लिखने का मतलब यह नहीं हैं की पश्चिमकी हर चीज सही है. मैं बस इतना कहना चाहता हूँ की कोई आन्दोलन पहले पश्चिममें शुरू हुआ इससे ही वह प्रतिक्रियावादी या पश्चिमपरस्त नहीं हो जाता
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