Monday, July 27, 2009

हू थिंह की एक कविता

पूछना

मैं धरती से पूछता हूँ: कैंसे रहती है धरती, धरती के साथ ?
-- हम एक दूसरे को इज्ज़त बख्शते हैं।

मैं पानी से पूछता हूँ: कैंसे रहता है पानी, पानी के साथ?
-- हम एक दूसरे में मिल जाते हैं।

मैं घास से पूछता हूँ: कैंसे रहती है घास, घास के साथ?
-- हम एक दूसरे में बुनकर
बनाते है क्षितिज।

मैं आदमी से पूछता हूँ: कैंसे रहता है आदमी, आदमी के साथ?

मैं आदमी से पूछता हूँ: कैंसे रहता है आदमी, आदमी के साथ?

मैं आदमी से पूछता हूँ: कैंसे रहता है आदमी, आदमी के साथ?

अनुवाद: अभिषेक मिश्रा

Wednesday, July 15, 2009

ओत्तो रेनी कास्तिलो की कवितायेँ

(प्रस्तुत हैं ग्वाटेमाला के प्रसिद्द कवि और छापामार विद्रोही ओत्तो रेनी कास्तिलो की कवितायेँ। अनुवाद कुलदीप प्रकाश का है। -- अभिषेक मिश्रा )


गैर राजनैतिक बुद्धिजीवी


एक दिन
मेरे देश के गैर राजनैतिक बुद्धिजीवियों से
हमारी जनता का सबसे साधारण आदमी
करेगा जबाब-तलब।

उनसे पूछा जायेगा
तब उन्होंने क्या किया
जब उनका देश मर रहा था एक धीमी मौत,
छोटी और अकेली आग की तरह।

कोई नहीं पूछेगा उनसे उनके कपडों के बारे में,
दोपहर के खाने के बाद उनकी लम्बी नींदों के बारे में,
कोई भी नहीं जानना चाहेगा
"अनस्तित्व के विचार" के साथ
उनकी बाँझ मुठभेडों के बारे में
उनकी श्रेष्ठ वित्तीय शिक्षा की
कोई भी फ़िक्र नहीं करेगा।

उनसे ग्रीक पुराणों के बारे में
सवाल नहीं किये जायेंगे,
न ही उनकी आत्मभर्त्सना के बारे में
जब उनके अन्दर कोई
एक कायर की मौत मरना शुरू करता है।

उनसे कुछ नहीं पूछा जायेगा
'सम्पूर्ण जीवन' की छाया में पैदा हुई
उनकी अतार्किक बहानेबाजियों के बारे में।

उस दिन
आम लोग आयेंगे
वे जिनकी कोई जगह नहीं है
गैर राजनैतिक बुद्धिजीविओं की
किताबों और कविताओं में
लेकिन जिन्होंने
रोज पैदा किये
उनके लिए पावरोटी और दूध
पराठें और अंडे
जिन्होंने उनकी कारें चलाईं,
जिन्होंने उनके कुत्तों और बगीचों की देखभाल की
और उनके लिए हर काम किया
और वे पूछेंगे :
क्या किया तुमने
जब गरीब यातनाएं सह रहे थे
जब उनके भीतर की कोमलता और जीवन धुंआ हो कर बाहर निकल रहा था ?

मेरे प्यारे देश के
गैर राजनैतिक बुद्धिजीविओं
तुम से फूटेगा नहीं कोई जवाब,
एक खामोशी का गिद्ध
तुम्हारे साहस को नोच खायेगा।
तुम्हारे खुद का कष्ट
तुम्हारी आत्मा को जकड़ लेगा।
और शर्म से तुम गूंगे हो जाओगे।



भूख और बन्दूक


तुम्हारे पास बन्दूक है
और मैं भूखा हूँ

तुम्हारे पास बन्दूक है
क्योंकि मैं भूखा हूँ

तुम्हारे पास बन्दूक है
इसलिए मैं भूखा हूँ

तुम एक बन्दूक रख सकते हो
तुम्हारे पास एक हज़ार गोलियां हो सकती हैं
और एक हज़ार और हो सकती हैं
तुम उन सब को मेरे नाचीज शरीर पर आजमा सकते हो
तुम मुझे एक, दो, तीन, दो हज़ार, सात हज़ार, बार मार सकते हो
लेकिन अंततः
मैं हमेशा तुमसे ज्यादा हथियारबंद रहूँगा

यदि तुम्हारे पास एक बन्दूक है
और मेरे पास
केवल भूख।



संतुष्टि


जो जीवन भर लड़े हैं
उनके लिए सबसे खुबसूरत चीज है
अंत पर पहुँच कर कहना
हमने भरोसा किया जनता और जीवन पर
और जीवन और जनता ने
हमें कभी नीचा नहीं दिखाया।

केवल इसी तरह से पुरुष बनते हैं पुरुष,
औरते बनती हैं औरतें,
लड़ते हुए रात और दिन
जनता और जीवन के लिए।

और जब ये जिंदगियां आती हैं ख़त्म होने को
लोग खोल देते हैं अपनी सबसे गहरी नदियों को
और समां जाते है उन पानियों में सदा के लिए।
और बन जाते हैं दूरस्थ आग की तरह, जीवित
दूसरों के लिए मिसाल बनते हुए।

जो जीवन भर लड़े हैं
उनके लिए सबसे खुबसूरत चीज है
अंत पर पहुँच कर कहना
हमने भरोसा किया जनता और जीवन पर
और जीवन और जनता ने
हमें कभी नीचा नहीं दिखाया।

Saturday, July 11, 2009

मिलना अपना

मैं था
अपने वक्तों में गले गले तक
डूबा हुआ


तुम थी

घुटनों तक
जली हुई


बहुत नायाब था
मिलना अपना
गाढ़े रेशों वाले उस समय में

घड़ी दो घड़ी
पहर दो पहर



-- अभिषेक मिश्रा

Tuesday, July 7, 2009

समलैंगिकता .........2

अभी कबाड़खाना ब्लॉग पर समलैंगिकता को लेकर एक बहस चल रही है। मैंने भी वहां दो पोस्टों पर कुछ टिप्पणियाँ की है। मैं पोस्ट समेत यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
पेश है अनिल यादव जी का लेख --

गे को हिन्दी में क्या कहते हैं ?

राजेश जोशी की पोस्ट और अभिषेक मिश्रा की टिप्पणी ने सोचने के लिए उकसाया। मसला बहुत जरूरी है बात होनी चाहिए।

अपने जैविक उत्स या प्रवृत्ति के रूप में गे-पंथ का पश्चिम से कुछ लेना-देना नहीं है। रामपुर के कबूतर (?) अपने यहां पाए जाते हैं (जो किस्सों में एक पंख से उड़ते हैं), पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ इलाकों में संपन्न लोगों द्वारा हाथी (?) पालने की परंपरा है। किसी नमकीन या कड़ियल, गबरू लौंडे के पीछे अपनी सारी जमीन जायदाद लुटा देने के किस्से भारत के हर कोने में मिलते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के बेटे मुबारक शाह और उस जैसे गे-रसिकों के ढेरों किस्से सल्तनत काल और मुगल काल के इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इमरजेंसी के दिनों में जब जेलों संघियों और समाजवादियों की भरमार थी तब एक नारा आया था- बोल जमूरे क्या देखा, नेता के ऊपर नेता देखा। यह नारा जिस क्वियर-कर्म पर फोकस था, वह बदस्तूर आज भी समाज के हर कोने अंतरे में जारी है। प्राकृतिक-अप्राकृतिक या अपना पार्टनर चुनने की आजादी की बहस बेकार है क्योंकि बहस करके, आप उस मजे को रत्ती भर भी हिला नहीं सकते जो गे और लेस्बियन एक दूसरे से पाते हैं।

पश्चिम से एक उच्चताबोध लिए एक नकचढ़ी भाषा आई, जिसमें उस रणनीति का खाका है जिस पर चलते हुए भारत में भी गे-पंथ के आंदोलन को विकसित होना है। अपने यहां जो हो रहा है वह पश्चिम में चालीस साल पहले हो चुका है, जो पश्चिम कर रहा है, बहुत संभव है कि दस साल बाद अपने यहां हो। देश चलाने वाले वाकई सुपर पावर और उदार लोकतंत्र के मेकअप में दिखने के लिए एक से एक करतब कर रहे हैं। वरना धारा 377 का वह विवादास्पद हिस्सा भारतीय संविधान का उल्लंघन करता है, यह फैसला संविधान लागू होने के उनसठ साल बाद क्यों आया। क्यों नहीं जैसे कुछ जातियों को क्रिमिनल ट्राइब के ब्रिटिश वर्गीकरण से निकाला गया, गे-कर्म को भी अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। अगर धारा-377 विक्टोरियन नैतिकता से प्रभावित थी, तो खुद ब्रिटेन ने जब इस नैतिकता को गुडबॉय करते हुए 1967 में सेक्सुअल आफेन्सेज एक्ट पास किया तो अपने यहां भी इसका परीक्षण किया गया। बात इतनी थी कि जो अपनी सेक्सुअल हैबिटस में अल्पसंख्यक हैं, उन्हें भी समानता की अवधारणा में जगह मिलनी चाहिए और उन्हें अपराधी नहीं माना जाना चाहिए लेकिन हाईकोर्ट ने जरा अति-उत्साह में अंबेडकर, नेहरू और सोनिया गांधी सबको विचारधारात्मक तौर पर गे लोगों के समर्थन में खड़ा कर दिया है। कानून की विसंगति का आपरेशन ठीक किया लेकिन एनस्थिसिया जरा चालू किस्म का लगा कर किया।

फैसला अपनी जगह ठीक है। कोई कारण नहीं होना चाहिए लेखक विक्रम सेठ जो अपने गे-पन को लेकर काफी संवेदनशीलता से बात करते हैं, वे कभी भी अपराधी करार दिए जाने के डर में जिएं। कोई समलैंगिक नहीं चाहेगा कि आस्कर वाइल्ड की तरह उसे प्रताड़ित किया जाए और वह मारा-मारा फिरे या जिम्बाब्बे के राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे की तरह ताने झेले। बिल्कुल गे लोगों को गरिमा के साथ निर्भय जीने का अधिकार है। लेकिन....

लेकिन वह भाषा आती है और विचार स्रोत आता है जिससे उर्जा लेकर एनजीओ और इंटरनेशनल एजेंसिया भारत में गे-पंथ का धर्म चक्र प्रवर्तन करने में लगे हुए हैं। इस आंदोलन का भविष्य झिलमिल दिखाई दे रहा है।

मिसाल के तौर पर 1967 में जब सेक्सुअल ऑफेन्सेज एक्ट पास किया गया तब ब्रिटेन में स्वैच्छिक समलैंगिकता के सहमत-असहमत होने की उम्र 21 साल रखी गई थी लेकिन 2000 में हाउस आफ लार्डस और ईसाई चर्चों के तीव्र विरोध के बावजूद इसे 16 साल कर दिया गया।
वहां अब गे शादियों को और बच्चे गोद लेने को वैधानिक करने की मांग हो रही है।
स्कूलों के पाठ्यक्रम में बताया जाए कि पुरूष-स्त्री संबध प्राकृतिक (नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी) नहीं हैं। यह मांग भी की जा रही है।

इस फैसले के बाद आंदोलनी गे भाई लोगों, उन गे लोगों का जीना हराम कर रखा है जो इसे निजी मामला रखना चाहते हैं। वे दबाव डाल रहे हैं कि तुम कैसे गे हो कि अदालत ने तुम्हारे पक्ष में है और तुम बिल में घुस कर पुच्च-पुच्च कर रहे हो। 1974 में गे-लिबरेशन फ्रंट ने निजता के आग्रह के ही कारण ईएम फोस्टर को भी नीच और घटिया-गे (downcast gay) घोषित किया था। यह मुहिम में समाज से थोड़ी सी सहिष्णुता और अपने समायोजन की अबोध मांग के साथ शुरू हुई है, वह आने वाले दिनों में आक्रामक होने वाली है।

इस पर वाकई बहस होनी है तो अपनी भाषा में होनी चाहिए। सबसे पहले तय होना चाहिए कि गे और क्वियर होना, हिंदी, बांग्ला, तमिल या पंजाबी में क्या होता है। जब तक एनजीओ बाज अपनी जबान में बात नहीं करते यह आंदोलन पश्चिम की लाइन पर ही चलेगा। उन लोगों को जो कर्म वही करते हैं लेकिन "गे" का मतलब नहीं जानते, पता ही नहीं चल पाएगा कि इतना गदर उन्हीं के अधिकारों के लिए मचा हुआ है।

इस पर मेरी टिप्पणियां --
अनिल यादव जी
मेरे ख्याल से कोर्ट के फैसले पर इस नज़रिए से विचार होना चाहिए की वह सही है की नहीं. न की इस नज़रिए से की भारत के शासक वर्ग ने अभी इसे क्यों लागु किया है. यह सही है की कोर्ट में भी यह मामला कई वर्षों से लंबित था. व भारत का शासक वर्ग उदारवादी व जनतांत्रिक दिखना चाहता है. दरअसल शासक वर्ग इसे पिछले कुछ वर्षों सेलागु करना चाहता है. इसे पिछले वर्षों में अम्बुमणि रोम्दोस के बयानोंमें देखा जा सकता है. लेकिन सर्कार यदि इसके लिए कानून में संशोधन करती तो इससे ज्यादा बवाल मचता. सरकार ने दूसरा रास्ता चुना उसने पुराने कानून की ही नई व्याख्या न्यायपालिका के जरिये करा दी है. न्याय पालिका थोडा गैर विवादस्पद माना जाता है और उसका विरोध करने पर अवमानना का खतरा होता है.न्यायपालिका में भी सरकार के पास यह नियंत्रण होता है की किस मामले पर फैसला ठीक किस समय दिया जाय और कौन पर्टिकुलर व्यक्ति जज हो. इसलिए ही यह संयोग नहीं है की यह फैसला डेल्ही में गे रैली के अगले ही दिन आया है.इस फैसले के जरिये सरकार वो माहौल बनान चाहती है की वह अगले कुछ वर्षों में इस बाबत कानून बना सके.
लेकिन जैसे मैंने पहले कहा फैसला सही है या नहीं इस प;आर विचार इस दृष्टि से नहीं करना चाहिए की भारत का शासक वर्ग इसको लागु करना चाहता था.
और दूसरी बात जहाँ तक हिंदी और अन्य भाषाओँ में गे के समंर्थी शब्द की बात है।कोई भी अस्मिता पर आधारित आन्दोलन के लिए उस अस्मिता को परिभाषित करने वाला शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. जैसे दलित आन्दोलन के लिए आंबेडकर का दिया शब्द 'दलित' . अंग्रेजी में भी समलैंगिकों के लिए कई शब्द प्रचलित थे जैसे queer , faggot आदि लेकिन gay थोडा सम्मानजनक शब्द माना जाता था. इसलिए समलैंगिक आन्दोलन ने इस शब्द कोले लिया. हलाँकि पिछले वर्षों से समलैंगिकों ने queer शब्द को भी उसके अपमानजनक अर्थ से हटाने में सफलता पाई है.इसलिए अब queer activism और queer studies जैसें शब्दों का व्यापक इस्तेमाल होने लगा है. यहाँ भी समलैंगिक आन्दोलन के आगे बढ़ने के साथ वे अपने लिए कोई स्थानिक अस्मितावादी शब्द चुन ही लेंगे जिससे अपमान का बोध न होता हो.

तीसरी बात, आपने लिखा है की यह मांग हो रही है कि स्कूलों के पाठ्यक्रम में बताया जाए कि पुरूष-स्त्री संबध प्राकृतिक (नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी) नहीं हैं।यह सही नहीं है।समलैंगिकों कि मांग यह नहीं है कि स्कूलों में यह पढाया जाय कि कि पुरूष-स्त्री संबध (नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी) नहीं हैं।उनकी मांग यह है कि स्कूलों में यह न पढाया जाय कि पुरूष-स्त्री संबध 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' है. ये दोनों बातें अलग हैं. उनका कहना है कि 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' कुछ होता ही नहीं है क्योंकि स्वयं सोसाइटी ही कोई नैचुरल चीज नहीं होती.सोसाइटी भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में जन्मी है और समय के साथ इसके रूप, व्यवस्था और मूल्य बदलते गएँ हैं. दरअसल -- पुरूष-स्त्री संबध 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' है-- यह बात समाज में बढ़ते समलैंगिक आन्दोलन के चलते ही सचेत तौर पर पाठ्यक्रम में लाइ गई है.जैसे भारत में अभी किसी भी पाठ्यपुस्तक में यह अलग से कहने कि जरुरत नहीं हुई है कि पुरूष-स्त्री संबध 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' है. लेकिन जैसे समलैंगिक लोगों का संघर्ष आगे बढेगा हो सकता कि यहाँ भी कोई समलैंगिकता का विरोधी पाठ्यक्रम में सचेत तौर पर यह बात डाल दे. समलैंगिक लोगों का कहना है कि स्कूलों में यह बात विशेष तौर पर डालने से बच्चों में समलैंगिकों के खिलाप सांस्कृतिक पूर्वाग्रह पैदा होंगे. जिससे समलैंगिकों के खिलाप भेदभाव बढेगा.

चौथी बात, 'वहां अब गे शादियों को और बच्चे गोद लेने को वैधानिक करने की मांग हो रही है।'
इसको भी सही से समझे जाने कि जरुरत है. जहाँ तक शाद्दी कि बात है यह तो मानना ही चाहिए कि यदि दो वयस्क लोग एक साथ रहना चाहें तो उन्हें यह हक़ होना चाहिए. असल संमस्या बच्चो को गोद लेने की मांग के बारे में है. इसके विरोधियों का यह कहना है की समलैंगिक परिवारों में पलने वाले बच्चे अनिवार्य रूप से विकृत हो जायेंगे.
इस बात को समझे जाने की जरुरत है. क्या स्त्री पुरुष के विषमलिंगी संबंधों के आधार पर बने परिवारों में पलने वाले बच्चों के विकृत्त होने की सम्भावना नहीं होती है? दरअसल परिवार नाम की इकाई कोई निर्वात में नहीं होती.हमारे समाज में परिवार का आधार पितृसत्ता होती है. सामान्यतया कोई भी परिवार (अपवादों को छोड़ दे तो) पितृसत्ता पर आधारित होता है. क्योंकि हर वर्गीय समाज पितृसत्तात्मक होता है. इसलिए परिवार नाम की संस्था वस्तुतः स्त्री के गुलामी व दमन पर आधारित होती है. इसलिए सामान्यतया परिवारों में पलने वाले बच्चे बहुत सारे पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक पूर्वाग्रह लेकर बड़े होते हैं. लड़के एक मरदाना दंभ व स्त्री को हीन समझने की भावना ग्रहण करते जाते हैं. लड़कियां यह सीखती हैं की उन्हें बस समर्पण करना है प्रेममें उनका रोल समर्पण का होता है. यह वस्तुतः ऐसी विकृत्ति है जो समूचे समाज के यौन व प्रेम जीवन पर असर डालती है. लेकिन हम इसे इसलिए विकृत्ति के रूप में नहीं देख पाते क्योंकि हम इस के अभ्यस्त होते हैं. इसलिए इस समाज में स्त्री पुरुष के संबधों के विक्रित्तिमुक्त होने की सम्भावना बहुत कम होती है. असल यौन विकृत्ति तो यह है. बलात्कार जैसे जघन्य अपराध इस विकृत्ति का चरम रूप हैं. वस्तुतः बलात्कार कोरा शारीरिक एक्ट नहीं होता है यह पुरुषों द्वारा स्त्री के अस्तित्व को गुलाम बनाने की सांस्कृतिक प्रवृत्ति का चरम रूप है. सिमोन, जरमेन ग्रैअर और अंजेला द्वोर्किन जैसी नारीवादी इसको सिध्ध कर चुकी हैं की कई बार ऐसे रिश्तों में भी जो बहुत सामान्य और प्रेमपूर्ण दिखाई देते हैं स्त्री की गुलामी और उसके व्यक्तित्व का दमन निहित होता है. इब्सन अपने नाटक डॉल्स हाउस में इसे दिखा चुके हैं. कल्पन कीजिये की उस डॉल्स हाउस में पलने वाले बच्चे की क्या वह विकृत्त नहीं होगा
यहाँ मेरे कहने का अर्थ यह नहीं हैं की समलैंगिक रिश्ते अनिवार्य तौर पर इन चीजों से मुक्त होते हैं. मेरे कहने का अर्थ यह है की हमें यौन विकृत्ति शब्द को परिभाषित करते हुए सावधानी से काम लेना चाहिए. वस्तूतः अमूमन समाज में मौजूद पितृसत्ता का रिफ्लेक्शन समाज में सभी प्रकार के यौन संबंधों पर पड़ता है. समलैंगिक संबंधों में भी अमूमन एक पार्टनर वर्चस्वशाली का व एक दमित का रोल निभा रहा होता है.
लेकिन यौन संबंधों में विकृत्ति का निर्धारण दरअसल इस मानदंड से होना चाहिए की समबन्ध में कितने पारस्परिकता है. और क्या वह संबध एक पार्टनर के वर्चस्व पर आधारित है?
इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि विषमलिंगी संबंधों के आधार पर बने परिवारों में पलने वाले बच्चों के विकृत्त होने की सम्भावना नहीं होती है.

समलैंगिकता ......... 1

अभी कबाड़खाना ब्लॉग पर समलैंगिकता को लेकर एक बहस चल रही है। मैंने भी वहां दो पोस्टों पर कुछ टिप्पणियाँ की है। मैं पोस्ट समेत यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
सबसे पहले राजेश जोशी जी का लेख --

मैं भी गे हुआ, तू भी गे हुआ
आज से मैं गे हुआ. ये घोषणा दिल्ली हाईकोर्ट के क्रांतिकारी फ़ैसले के बाद की है. क्योंकि अगर तू गे है तो प्रोग्रेसिव है. अन्यथा नहीं. अगर तू गे है तो सैंसिटिव है. अन्यथा नहीं. अगर तू गे है तो तेरा जनतंत्र पर यक़ीन है, वगर्ना तू फ़ासीवादी है.

मै न इंसैंसिटिव हूँ. न मैं जनतंत्र पर शक करता हूँ और न ही मैं फ़ासीवादी हूँ. अब मेरे पास एक ही चारा बचा है कि मैं ख़ुद को गे डिक्लेअर कर दूँ. कैसा है? इसमें बुराई भी क्या है?

अब तू अगर गे है तो ऐश कर. अब तक लास एंजेलस या सिनसिनाट्टी में रहने वाला तेरा पार्टनर ही ऐश करता था. अब तू भी कर. दिल्ली और बंबई में रहकर भी ऐश कर. मैं अब कुछ ही दिन में दिल्ली और आसपास के गाँवो-क़स्बों में गे परेड का आयोजन करना चाहूँगा. मैं नहीं करूँगा तो कोई और करेगा. तू भी आएगा ना? ये अपनी नई लिबरेशन है आफ़्टर आल.

आख़िर तू ही सपने देखता था ना कि हिंदुस्तान एक दिन सुपर पावर होएगा? तूने ही तो कहा था कि यार सरकार का काम कोई ब्रेड बनाना या स्टील बनाना नहीं है. कितनी सुपर-डुपर बात थी. आस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और यहाँ तक कि जापान को भी वेस्टर्न कंट्री मानते हैं कि नहीं. अगर इंडिया वेस्टर्न हो रहा है तो इतनी हायतौबा क्यों? अशोक राव कवि कितना इंक़लाबी था कि पिछली सदी में ही खुल्लेआम कहता था कि मुझे ट्रक़ ड्राइवर कित्ते पसांद हैं. (अरे वही अशोक राव कवि जिसने गाँधी को सनकी बनिया कहा था... हाहाहाहाहाह !!!)

दिल्ली से पुलिस हेडर्क्वार्टर्स के बाहर 1992 का वो प्रदर्शन याद है जिसमें सुंदर मुखड़ों वाली सुकन्याएँ घोषणा कर रही थीं कि उन्हें लड़कों से नफ़रत हैं और लड़कियों से प्यार? कित्ते डरा करते थे हम लोग यार.... डेमाक्रेसी में रहने के बावजूद तू अपने पार्टनर को चुम्मा नहीं दे सकता था. उसकी बाँह में बाँह डालकर घूम नहीं सकता था. साउण्ड्स लाइक सो, सो, लास्ट सेंचुरी.

नाउ तो इंडिया हैज़ चेन्ज़्ड ए लाट, यार !! तेरी बात भी सुनी जाएगी. दिल्ली हाईकोर्ट इज़ रियली, रियययली, रिययययली रिवाल्यूशनरी.

(उम्मीद है कि एक बहस छिड़ेगी. अगर नहीं छिड़ी तो भी क्या. भारत तो वर्ल्ड पावर बन ही रहा है.)

इस पर मेरी टिप्पणियां --
१ rajesh joshi ji,
aapki bat samajh nahin aai aisa lagta hai ki aap samlaingik logon par apni frustration nikal rahen hain. samlaingikon ne yah kabhi nahin kaha ki agar koi samlaingik nahin hai to vah janvaadi ya krantikari nahin hai. samlaingikon ki pida to bas itni hai ki unko bhi ek aam nagrik ki terah jeene ka hak hai.
aur jo sexual minority ke hakon ko recognize nahin karta vah janvaadi nahi hai। jaise koi yadi bharat mrn dharmik alpsankhyakon jaise muslimon ke nagrik adhikaron ko nahinmanta to vah janvadi nahin hai.samlaingikon ko aam logonki terah jeene ka hak hai yah manne ke liye samlaingik hona jaruri nahin hai. jaise dalit utpeedan ka virodh karne ke liye dalit hona jaruri nahin hai.

२ और दूसरी बात, आपने जो समलैंगिकों को एक खास राजनैतिक प्रवित्ति से जोड़ा है. आपका कहना चाहते हैं की समलैंगिक कारपोरेट भुमंदालिकरण और निजीकरण के समर्थक है या सुपरपावर बनने के पूंजीवादी प्रचार को ठीक मानते हैं. यह एकदम गलत है.यह सही है समलैंगिक अधिकारों के लिए आन्दोलन पहले पश्चिमी देशों में हुए और फिर भारत में आयें हैं. लेकिन ऐसा तो जनवादी लोकतंत्र के बारे में भी सच है. जनवाद के लिए संघर्ष भी पहले पश्चिम में ही हुए. जनवादी क्रांतिया पश्चिम में हुई. संसदीय लोकतंत्र और वयस्क मताधिकार की संकल्पना भी पहले पश्चिम में आई. साम्यवादी और सामाजवादी आन्दोलन भी पश्चिमसे शुरू हुए.आधुनिक नारीवादी आन्दोलन भी पश्चिम से शुरू हुए. यहाँ इतना लिखने का मतलब यह नहीं हैं की पश्चिमकी हर चीज सही है. मैं बस इतना कहना चाहता हूँ की कोई आन्दोलन पहले पश्चिममें शुरू हुआ इससे ही वह प्रतिक्रियावादी या पश्चिमपरस्त नहीं हो जाता

Saturday, July 4, 2009

समलैंगिकता, प्राकृतिक या अप्राकृतिक

कल एक क्रन्तिकारी मार्क्सवादी मित्र से बातचीत हो रही थी। सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकों पर ताजा फैसले के बारे में। पहले तो उन्होंने फैसले का स्वागत किया लेकिन जब मैंने मार्क्सवाद के समलैंगिकता पर स्टैंड पर प्रश्न उठाये तो वह नाराज़ हो गए।
समलैंगिक लोगों के अधिकारों का विरोध जब बाबा रामदेव, बुखारी और विहिप जैसे संगठन करतें हैं। तो यह समझा जा सकता है। लेकिन जिस तरह से मार्क्सवादी मित्र अपने स्टैंड को बदलने में आनाकानी करते हैं वह निराशाजनक है। यह सही है कि मार्क्स और एंगेल्स ने अपने पत्र व्यव्हार में समलैंगिको के लिए गाली गलौज की भाषा इस्तेमाल की है। एंगेल्स ने अपने प्रसिद्द ग्रन्थ 'परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति' में समलैंगिकता को 'अप्राकृतिक' 'विकृति' और 'नैतिक पतन' की संज्ञा दी थी। मार्क्स के अनुसार समलैंगिकता पूंजीवादी समाज की एक नैतिक विकृति है। इसके बाद सोवियत संघ और चीन की समाजवादी सरकारों ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाले कानून बनाये। मक्सिम गोर्की ने 1934 में अपने लेख प्रोलितेरियन ह्यूमनिज्म में कहा -- 'विश्व से समलैंगिकों को ख़त्म कर दो फासीवाद अपने आप ही गायब हो जाएगा'
यह सब होते हुए भी यदि मार्क्सवादी अब भी समलैंगिकता का विरोध करते हैं। और समलैंगिकों को अपराधी मानकर उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों के दमन को जायज़ ठहराते हों। तो उनको जडसूत्रावादी के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है। क्या इसी का नाम मार्क्सवाद है। क्या ऐसे ही साम्यवाद के लिए जनता को संघर्ष करना है जिसमें समलैंगिकों को जीने का अधिकार भी न हो।
दिल्ली उच्च न्यायालय के ताज़ा फैसले के बाद अब तक किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी या संगठन चाहे वह उदारवादी हो या क्रान्तिकारी ने अब तक कोई स्टैंड नहीं लिया है। इस समय चुप्पी का मतलब फैसले का विरोध करना है।
निश्चित रूप से हम मार्क्सवादियों को अपनी गलती सुधारनी होगी। अतीत के लिए अपनी आत्मालोचना करनी होगी। और मार्क्स से लेकर गोर्की तक के बयानों को ग़लत कहना होगा।

प्रसंगवश पेश है निपुण गोयल की एक कविता

There will be a day,
I can tell the world
I’m gay
When hatred and disgust
Shall not bar my way
To come out of the closet-
So stifling this day.

When “normal” men realize
I’m no less normal;
When archaic laws
Don’t deem my love criminal;
When I walk hand in hand
And proudly I can stand
With my beloved beside me
And the light of freedom around me.

There will be a day
When I can tell the world
I’m gay…