बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आ कर अच्छा लग रहा है. पेशे नज़र है एक ग़ज़ल --
धडकने के सिवा दिए की तरह जलता है
अँधेरी रातों में दिल और भी सुर्ख होता है
धडकने के सिवा दिए की तरह जलता है
अँधेरी रातों में दिल और भी सुर्ख होता है
हम छोड़ आये थे कहीं हसरतों का जहाँ
अब हर कदम हर गाम पे मकाँ होता है
वो कहते हैं आने वाली है फस्लेगुल
यहाँ हर शै हर जिस्म जिबह होता है
बहुत हुआ अब चुप न बैठेंगे यारों
खो गयी हैं कहीं गर्द में सितारों की राहें
फ़क़त उम्मीद से रौशन जहाँ होता है
अभिषेक मिश्रा
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